श्री श्री परमहंस योगानन्द ने अपने गौरव ग्रन्थ योगी कथामृत में “आधुनिक भारत के महावतार बाबाजी” के इस वचन का उल्लेख किया है, “मैं अपने भौतिक शरीर का कभी त्याग नहीं करूंगा। मेरा यह भौतिक शरीर इस पृथ्वी पर कम से कम कुछ लोगों को सदा दिखाई देता रहेगा।” इसी पवित्र पुस्तक के माध्यम से इस संसार को पहली बार महान् एवं अमर अवतार बाबाजी के बारे में पता चला था। तब तक दैवी आदेश अथवा गहन विनम्रता के कारण ये एकान्तवासी महान् गुरु शताब्दियों से, या सम्भवतः सहस्राब्दियों से, बद्रीनारायण के आसपास के उत्तरी हिमालय पर्वतों के पूर्ण निर्जन प्रदेश में अपने स्थूल शरीर में वास कर रहे थे।
अमर बाबाजी के शरीर पर आयु का कोई लक्षण दृष्टिगोचर नहीं होता है, तथा वे अधिक से अधिक पच्चीस वर्ष के युवक दिखते हैं। उनके सुन्दर बलिष्ठ शरीर पर सहज ही दिख पड़ने योग्य तेज विद्यमान है
अद्वितीय महागुरु अपने शिष्यों के एक छोटे से समूह के साथ हिमालय के निर्जन पर्वतों में एक स्थान से दूसरे स्थान तक भ्रमण करते रहते हैं। अनासक्त महागुरु के रहस्यमय शब्द “डेरा डण्डा उठाओ” उनके शिष्यों के समूह के लिए सूक्ष्म शरीर के माध्यम से तत्क्षण किसी अन्य स्थान पर पहुँचने का संकेत होते हैं।
जनवरी 1894 में, प्रयागराज कुम्भ मेले में, बाबाजी ने स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी से भेंट की थी और उन्हें वचन दिया था कि वे उनके पास एक शिष्य को भेजेंगे, जिसे उनको क्रियायोग परम्परा में प्रशिक्षित करना होगा। वे विशेष शिष्य थे श्री श्री परमहंस योगानन्द, जिन्होंने कालान्तर में योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया/सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप की स्थापना की, जिसके माध्यम से एक शताब्दी से अधिक समय से ईश्वरीय सेवा की भावना के साथ प्राचीन क्रियायोग विज्ञान का प्रसार कार्य किया जा रहा है।
अपना पवित्र कार्य प्रारम्भ करने के लिए पाश्चात्य जगत् को प्रस्थान करने से पूर्व योगानन्दजी को दैवी आश्वासन की आवश्यकता अनुभव हुई। जैसा कि उन्होंने अपनी पुस्तक योगी कथामृत में लिखा है, “अमेरिका जाने का संकल्प तो मेरे मन ने कर लिया था, पर साथ ही ईश्वर की अनुमति और आश्वासन-वाणी सुनने के लिए वह और भी अधिक कृतसंकल्प था।” 25 जुलाई, 1920 को योगानन्दजी प्रातःकाल से ही अत्यन्त दृढ़ संकल्प के साथ प्रार्थना करने बैठ गए। जब उनकी प्रार्थना की उत्कटता पराकाष्ठा तक पहुँच गयी, ठीक उसी क्षण उनके कोलकाता स्थित घर के दरवाजे पर दस्तक सुनाई दी। युवा शिष्य को हिमालय के सर्वव्यापी महागुरु का तेज “सहस्रों सूर्यों के उदय” के समान प्रतीत हो रहा था। स्तब्ध युवक से उन्होंने मधुर स्वर में हिन्दी में बात की, "हाँ, मैं बाबाजी हूं। हम सबके परमपिता ने तुम्हारी प्रार्थना सुन ली है। उन्होंने मुझे तुमसे यह बताने का आदेश दिया है : अपने गुरु की आज्ञा का पालन करो और अमेरिका चले जाओ। डरो मत; तुम्हारा पूर्ण संरक्षण किया जायेगा।” यह अनुभव श्री श्री लाहिड़ी महाशय के दृढ़ विश्वास का साक्षी है कि, "जब भी कोई श्रद्धापूर्वक बाबाजी का नाम लेता है तो उस भक्त को तत्क्षण आध्यात्मिक आशीर्वाद प्राप्त होता है।"
उस महत्वपूर्ण दिवस की स्मृति में सम्पूर्ण विश्व के भक्त प्रत्येक वर्ष 25 जुलाई को बाबाजी स्मृति दिवस के रूप में मनाते हैं। अनेक वर्षों के पश्चात् सन् 1963 में बाबाजी ने वाईएसएस/एसआरएफ़ की तीसरी अध्यक्ष श्री दया माता को अपनी पूरी महिमा के साथ दर्शन दिये थे, जब वे हिमालय में द्वाराहाट के निकट पवित्र गुफ़ा की तीर्थयात्रा पर गयी हुई थीं, जहां ऐसा माना जाता है कि बाबाजी ने कुछ समय तक निवास किया था। इसी पवित्र स्थल पर उन्होंने श्री श्री लाहिड़ी महाशयजी को क्रियायोग के लुप्त विज्ञान की दीक्षा प्रदान की थी। दया माताजी ने महागुरु से उनके सच्चे स्वरूप के विषय में जानने की इच्छा व्यक्त की थी और बाबाजी ने दिव्य प्रेम की अत्यन्त तीव्र आभा को प्रकट करते हुए उनके इस मधुर प्रश्न का उत्तर दिया था, "मेरी प्रकृति प्रेम है क्योंकि केवल प्रेम ही इस संसार को परिवर्तित कर सकता है।" अधिक जानकारी : yssofindia.org
लेखिका : संध्या एस. नायर
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