गीता का कालातीत ज्ञान (गीता जयन्ती पर विशेष)
भारत के बच्चों ने अपने बचपन में जितनी भी कहानियां सुनी हैं, उनमें से महाभारत की कथा ने उन्हें अनेक सदियों से सबसे अधिक आकर्षित किया है। महाभारत-कथा कथानक, उपकथानकों, पात्रों और छलकपट इत्यादि विविध जटिलताओं से पूर्ण है, तथापि इसका सार गीता के सन्देश में निहित है। श्रीमद्भगवद्गीता स्वयं भगवान् द्वारा अपने भक्त महान् पाण्डव योद्धा अर्जुन को प्रदान किये गए कालातीत, युगान्तरकारी और शाश्वत एवं दिव्य धर्मोपदेश की एक अत्यन्त उत्कृष्ट प्रस्तुति है।
ऐसा सत्य ही कहा गया है कि एक भक्त किसी समय में अपनी आध्यात्मिक यात्रा के जिस चरण में होता है, श्रीमद्भगवद्गीता यात्रा के उस खण्ड पर अपना प्रकाश डालती है।
प्रत्येक वर्ष दिसम्बर के महीने में सम्पूर्ण विश्व में गीता जयन्ती मनाई जाती है और विशेष रूप से इस अवधि में ज्ञानीजन इस महान् ग्रन्थ में निहित गहन विषयों पर प्रकाश डालते हैं।
जब कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अर्जुन अपने ही “सम्बन्धियों” के विरुद्ध युद्ध करने के लिए इच्छुक नहीं थे तथा विषाद की स्थिति में थे, तो प्रत्युत्तर में भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हें अपने रूपान्तरकारी एवं प्रेरक शब्दों के साथ परम सत्य का उपदेश दिया। श्री श्री परमहंस योगानन्द द्वारा रचित पुस्तक “ईश्वर-अर्जुन संवाद” श्रीमद्भगवद्गीता और उसमें अन्तर्निहित सन्देश की एक अत्यन्त गहन आध्यात्मिक व्याख्या है। योगानन्दजी ने वैश्विक स्तर पर अत्यन्त लोकप्रिय पुस्तक, “योगी कथामृत” तथा अनेक अन्य अत्यधिक प्रेरणादायक आध्यात्मिक पुस्तकों का भी लेखन किया है।
दो खण्डों वाली पुस्तक “ईश्वर-अर्जुन संवाद” में योगानन्दजी ने गीता के 700 श्लोकों के वास्तविक महत्व का विस्तृत विश्लेषण किया है। भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए दिव्य उपदेश का सार यह है कि हम सब आत्मा हैं, शरीर नहीं, और अन्ततः हमारे भीतर विद्यमान पाण्डवों को हमारे भीतर विद्यमान कौरवों पर विजय प्राप्त करनी होगी, ताकि आत्मा जन्म और मृत्यु के अन्तहीन चक्रों से मुक्त हो सके।
भगवान् ने जिस प्रकार अपने शिष्य अर्जुन को सर्वोच्च युद्ध लड़ने का परामर्श दिया था, उसी प्रकार प्रत्येक मनुष्य को अपने अहंकार, आदतों, क्रोध, बुराई, वासना और भौतिक इच्छाओं पर विजय पाने का प्रयास करना चाहिए, ताकि वह अन्तिम मोक्ष प्राप्त कर सके। योगानन्दजी बताते हैं कि महाभारत का प्रत्येक पात्र एक अद्वितीय गुण का प्रतीक है, जिसे हमें पराजित करना है अथवा उसका पोषण करना है—यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह गुण अन्दर विद्यमान दुष्ट कौरवों का प्रतिनिधित्व करता है या नेक पाण्डवों का।
योगानन्दजी की “क्रियायोग” शिक्षाओं में गीता का मूल सन्देश निहित है। “क्रियायोग” आत्म-साक्षात्कार का सर्वोच्च मार्ग है। योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया (वाईएसएस) द्वारा प्रकाशित योगानन्दजी की गृह अध्ययन पाठमाला में “क्रियायोग” ध्यान प्रविधियों के विषय में चरणबद्ध निर्देश सम्मिलित हैं। यह योगदा सत्संग पाठमाला सभी सत्यान्वेषियों के लिए उपलब्ध है तथा इस पाठमाला के माध्यम से लाखों भक्तों ने अपनी आध्यात्मिक खोज को तीव्र करने की क्षमता प्राप्त की है।
श्रीमद्भगवद्गीता में ध्यान की इस उत्कृष्ट वैज्ञानिक प्रविधि “क्रियायोग” का दो बार उल्लेख किया गया है। उन्नीसवीं शताब्दी में महावतार बाबाजी की “लीला” के माध्यम से मानवजाति ने पुनः इसकी खोज की। बाबाजी ने अपने शिष्य और योगानन्दजी के परम गुरु लाहिड़ी महाशय को इसका ज्ञान प्रदान किया। लाहिड़ी महाशय ने स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि को “क्रियायोग” की दीक्षा प्रदान की और तत्पश्चात उन्होंने अपने प्रमुख शिष्य योगानन्दजी को दीक्षा प्रदान की।
भारत में एक कहावत है, “जहाँ कृष्ण हैं, वहाँ विजय है!” वस्तुतः वे लोग अत्यन्त भाग्यशाली हैं, जिन्होंने अपनी जीवनशैली का निर्माण गीता की शिक्षाओं के अनुरूप किया है। अधिक जानकारी : yssi.org
लेखक : विवेक अत्रे