“हे अर्जुन, तुम योगी बनो,” इन अविस्मरणीय शब्दों के साथ भगवान् श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अपने अत्यन्त उन्नत भक्त अर्जुन को परम् मुक्ति के योग मार्ग का अनुसरण करने का निर्देश दिया। श्रीमद्भगवद्गीता निश्चित रूप से एक ऐसा दिव्य ग्रन्थ है जिसमें जीवन का उद्देश्य समाहित है और जिसमें परम् सत्यों की व्याख्या की गई है जिनकी खोज सम्पूर्ण मानव जाति द्वारा पूरे मनोयोग से की जानी चाहिए। इस ग्रन्थ में स्वयं भगवान् द्वारा अपने किंकर्तव्यविमूढ़ एवं विस्मयाभिभूत शिष्य को दिया गया वह कालातीत सन्देश निहित है कि अपने कर्तव्य को सर्वाधिक प्राथमिकता देना और अपने कर्मों के फलों के प्रति आसक्ति के बन्धन से मुक्ति आवश्यक है। विश्व प्रसिद्ध आध्यात्मिक गौरव ग्रन्थ, “योगी कथामृत," के लेखक, श्री श्री परमहंस योगानन्द ने, गीता की अपनी व्याख्या, “ईश्वर-अर्जुन संवाद,” में श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए अमर सन्देश के सच्चे अर्थ की विस्तृत व्याख्या की है। योगानन्दजी बताते हैं कि महाभारत के नाम से प्रसिद्ध कुरुक्षेत्र के युद्ध का वास्तविक महत्व उन आन्तरिक संघर्षों में निहित है जिनका सामना प्रत्येक मनुष्य को निरन्तर अपने मन में करना पड़ता है। मानवीय जीवन के प्रत्येक खण्ड में स्वयं हमारी अच्छी प्रवृत्तियों और बुरी प्रवृत्तियों को परस्पर युद्ध करना पड़ता है, तथा अन्ततः अच्छाई की विजय और बुराई की पराजय होती है, परन्तु इससे लिए हमारे लिए ईश्वर के निकट जाने के लिए दृढ़ प्रयास करना और उसके परिणामस्वरूप भौतिक संसार के प्रति सभी आसक्तियों को त्यागना आवश्यक है। प्रत्येक वर्ष माता देवकी के पुत्र शिशु कृष्ण के जन्म की वर्षगाँठ जन्माष्टमी के रूप में मनाई जाती है और इस अवसर पर सम्पूर्ण विश्व में प्रायः देर रात तक रंगारंग संगीतमय उत्सव आयोजित किये जाते हैं। भगवान् विष्णु के अवतार भगवान् कृष्ण के जन्म का उत्सव मनाने के लिए भक्त अत्यन्त सुन्दरतापूर्वक सजाए गए मन्दिरों में एकत्र होते हैं और वे स्वयं अपने घरों में भी छोटे मन्दिरों को सजाते हैं। परन्तु सन्त हमें बताते हैं कि जब हम भगवान् श्रीकृष्ण के साथ अधिकाधिक समस्वर होने का प्रयास करते हैं तो जन्माष्टमी का वास्तविक उत्सव हमारे हृदयों और आत्माओं के भीतर होता है अथवा होना चाहिए। योगानन्दजी ने सन् 1917 में योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया (वाईएसएस) की स्थापना की थी, जो अनेक प्रकार से कालातीत क्रियायोग ध्यान प्राविधि के प्रसार का कार्य करती है। अमर गुरु महावतार बाबाजी ने महान् योगावतार लाहिड़ी महाशय को क्रियायोग का तात्विक ज्ञान प्रदान किया तथा उन्होंने यह विज्ञान योगानन्दजी के आध्यात्मिक गुरू ज्ञानावतार स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि को सिखाया था। भगवान् श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोकों में दो बार क्रियायोग का उल्लेख किया है। यह मनुष्य को ज्ञात सर्वोच्च विज्ञान है, जो ईश्वर के साथ एकता के लक्ष्य की दिशा में निरन्तर अग्रसर होने में आध्यात्मिक साधक की सहायता करता है। जन्माष्टमी के इस महान् दिवस पर, आइए हम सब अपने अन्तरतम् में विद्यमान भगवान् श्रीकृष्ण को जाग्रत करने का प्रयास करें और अपने आस-पास के सभी लोगों के कल्याण हेतु स्वयं को उनकी शिक्षाओं के अनुरूप बनाने का प्रयास करें। अधिक जानकारी : yssi.org
लेखक : विवेक अत्रे
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