अच्छे दिन का सपना दिखाकर, लोगों में भ्रम फैलाकर जो वर्तमान में केंद्र सरकार द्वारा किया जा रहा है इससे खराब कुछ हो नहीं सकता , उससे अच्छा तो वही पुराना दिन लौटा दे सरकार… यह कहना है सामाजिक कार्यकर्ता ब्रह्मदेव पासवान का।
वो कहते है कि मजदूर और मालिक का रिश्ता, यह एक ऐसा रिश्ता है कि इन दोनों में से कोई भी अगर किसी का साथ छोड़ दे तो इस रिश्ते की व्याख्या करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है । बगैर एक-दुसरे के कोई एक कदम भी नहीं चल सकता। लेकिन मजदूर और मालिक की तुलना की जाये तो मालिक मालामाल होते चले जा रहे है और मजदूर जस का तस फटेहाल मुफलिसी की जिंदगी जीने को विवश है। मजदूरों की वही स्थिति है जो आजादी के पूर्व थी। इतने सालों बाद भी अगर मजदूरों में कोई बदलाव नहीं आया तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है? नीतियां और कानून ! या फिर राजनीतिक उपेक्षा! हो जो भी सच तो यह है कि इसके लिए कहीं न कहीं देश में गंदी राजनीति ही मजदूरों को हासिए पर ला खड़ा किया है। ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है, फिर किस आधार पर राजनेता देश को औद्योगिक राष्ट्र बनाने का सब्जबाग दिखाते हैं, जबकि करोड़ों मजदूर कष्ट में हैं? मजदूरों की बड़ी आबादी इन दिनों काम की तलाश में भटक रही है। मगर इन्ही दिनों में मिल मालिक और बुद्धिजीवी वर्ग के लोग अपने-अपने भिन्न-भिन्न व्यक्तव्यों से तथा विभिन्न तरीकों से मजदूरों को अपने उपयोग का साहित्य बनायेंगे। जबकि मजदूर चिलचिलाती धूप में मिट्टी और सीमेंट में सन कर भूखे-प्यासे किसी निर्माण कार्य में लगे रहेंगे। 94 प्रतिशत मजदूर असंगठित क्षेत्र के उद्धार का दावा करने वाले श्रमिक संगठनों की संख्या भी हजार से ऊपर है, लेकिन मजदूरों की जिंदगी ‘राम की गंगा’ से भी बदतर है। आज असंगठित क्षेत्र का मजदूर 12 से 14 घंटे तक काम करने को मजबूर है। उसकी कोई मजदूरी तय नहीं है। ठेकेदार (काँट्रैक्टर) मजदूर की मजबूरी का फयदा शीतल छाया में बैठकर उठाते हैं। बैंक जाकर पेंशन उठाना मजदूर के सपने में भी नहीं आता। उसके लिए सातों दिन भगवान के हैं। जिस दिन काम पर नहीं निकलेगा उस दिन बीवी-बच्चों के साथ उसका भूखा सोना तय है। सामाजिक सुरक्षा किस चिड़िया का नाम है, उसे नहीं पता। अशिक्षित होने के चलते उसे हर दम असुरक्षा सताती रहती है।
ब्रह्मदेव पासवान ने बताया कि यह भारत की 94 प्रतिशत असंगठित लेबरफोर्स का हाल है। बाकी बचे 6 प्रतिशत संगठित क्षेत्र के मजदूरों को भी हूरों के सपने नहीं आते। वे सरकार द्वारा चलाए जा रहे निजीकरण के बुल्डोजर से हर पल भयभीत रहते हैं। वीआरएस के हथियार से उन्हें किसी भी वक्त कत्ल किया जा सकता है। काम के बोझ से उनकी कमर कमान बनी रहती है लेकिन कम तनख्वाह की महाभारत खत्म होने का नाम नहीं लेती। ऊपर से उन्हें छोटे-छोटे लाभों से वंचित रखने की साजिशें लगातार चलती रहती हैं। उसपर से मोदीजी के आत्मनिर्भर भारत के नये श्रम कानून दुनिया के सर्वाधिक अवरोधी कानून हैं।
पासवान ने यह भी कहा कि ये पूँजीपतियों के पिटू का काम करने वाले नजर आते हैं। कृषक कानून की बात करें तो मैं यही कहूँगा कि मोदीजी की सरकार भारत को कृषि प्रधान देश की जगह मजदूर प्रधान देश बनाना चाहती है। उसे तथाकथित कुशल श्रमिकों की यह सच्चाई नहीं मालूम कि देश भर के सैकड़ों इंजीनियरिंग और आईटीआई संस्थान अनाड़ियों की ऐसी फौज तैयार कर रहे हैं, जिन्हें कुशलता से एक कील ठोकना भी नहीं आता। पहले की सरकार ने मजदूरों के पेट का ध्यान रखकर भोजन का अधिकार, काम का अधिकार, मनरेगा और अन्य योजनाओं की फसल बोई लेकिन
पिछले सात सालों में मोदीजी की सरकार ने मजदूरों को अपने पैरों पर खड़ा होने का कोई ठोस काम किसी ने नहीं किया। मजदूरों को कुशल बनाने, पेशे के अनुसार उनको आधारभूत शिक्षा देने, उनके काम की जगहों को सुरक्षित बनाने तथा ‘पसीना सूखने से पहले मजदूर की मजदूरी मिलने’ का कोई मंजर मोदीजी की कार्यकाल में नजर नहीं आता। इसलिए मैं इंटक की तरफ से मोदीजी से दरख्वास्त करना चाहूँगा कि मजदूर के वही दिन वापस लौटा दिजिये जो पुराने दिनों में मजदूरों ने व्यतीत किये थे। आपके अच्छे दिन देखने की चाहत ने तो इन बेचारों को अंधा बना दिया है।
साभार: ब्रह्मदेव पासवान,
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