“योगावतार” के रूप में अत्यन्त सम्मानित, सुप्रसिद्ध सन्त श्री श्री लाहिड़ी महाशय ने संसार को क्रियायोग की एक स्थायी विरासत प्रदान की, जो एक ईश्वर-प्रदत्त मुक्ति की प्रविधि है। आइए एक आदर्श गृहस्थ योगी के रूप में उनके अनुकरणीय जीवन पर पुनर्विचार करें, जो भौतिकवाद से परे और ईश्वर पर केन्द्रित जीवन की भारतीय आध्यात्मिक परम्परा का साक्ष्य प्रस्तुत करता है।
महान् गुरु का जन्म 30 सितंबर 1828 को श्यामाचरण लाहिड़ी (1828-1895) के रूप में घुरणी, बंगाल में एक पवित्र परिवार में हुआ था। उन्होंने वाराणसी के पवित्र नगर में एक अकाउंटेंट के रूप में साधारण जीवन व्यतीत किया। वे दो बच्चों के पिता थे। सन् 1861 में, तैंतीस साल की आयु में, हिमालय के रानीखेत पर्वतों में अमर गुरु महावतार बाबाजी से पहली बार उनकी भेंट हुई थी; यह भेंट वस्तुतः गुरु और शिष्य के मध्य विद्यमान शाश्वत बन्धन का पुनर्जागरण था। बाबाजी ने श्यामाचरण को क्रियायोग की पवित्र दीक्षा प्रदान की। सहस्राब्दियों पूर्व भगवान् श्रीकृष्ण ने मुक्ति की यह प्राचीन योग प्रविधि अर्जुन को प्रदान की थी तथा कालान्तर में यह पतंजलि और ईसा मसीह को ज्ञात थी। तत्पश्चात् बाबाजी ने सभी निष्ठावान् साधकों को क्रियायोग की दीक्षा प्रदान करने का कार्य सौंप पर उन्हें विदा किया।
तत्पश्चात् शीघ्र ही, क्रियायोग की दिव्य सरिता वाराणसी के सुदूर कोने से भारत में दूर-दूर तक प्रवाहित होनी प्रारम्भ हो गयी। अपने सर्वसमावेशी स्वरूप के कारण लाहिड़ी महाशय का क्रियायोग का सन्देश साम्प्रदायिक सिद्धान्तों, जाति और पंथ की सीमाओं को पार करते हुए, दूर-दूर तक मानव जाति के मन तक जा पहुंचा। क्रियायोग एक प्राणायाम का स्वरूप है जिसमें हम श्वास, मन और प्राणशक्ति का प्रयोग करते हैं—मेरुदण्ड में प्राणशक्ति को ऊपर और नीचे प्रवाहित करने तथा प्रमस्तिष्क मेरुदण्डीय केन्द्रों और अपने अन्तर् में ईश्वरीय विद्यमानता को जाग्रत करने के फलस्वरूप आध्यात्मिक विकास की गति तीव्र होती है।
महान् गुरु ने योग की प्राचीन जटिलताओं को संक्षिप्त व्यावहारिक आध्यात्मिक वास्तविकताओं में परिणत किया जो गृहस्थों और संन्यासियों दोनों के लिए समान रूप से ग्राह्य थीं। उनकी पवित्र शिक्षाओं ने अनगिनत भक्तों के जीवन को रूपान्तरित किया; उनके कुछ निकट शिष्यों का अवतार-सदृश सन्तों के रूप में उत्थान हुआ। उन्होंने कहा था, “ईश्वर-साक्षात्कार आत्म-प्रयास से सम्भव है, वह किसी धार्मिक विश्वास या किसी ब्रह्माण्ड नायक की मनमानी इच्छा-अनिच्छा पर निर्भर नहीं है।”
लाहिड़ी महाशय सन् 1886 में सेवानिवृत्त होने के पश्चात् शायद ही कभी अपने निवास स्थान से बाहर गए होंगे। भक्तगण प्रायः देखते थे कि पूजनीय गुरुदेव पद्मासन में बैठे हुए श्वासरहितता, निद्रारहितता, नाड़ी और हृदय की धड़कन का रुका हुआ होना और उनके चारों ओर आनन्द एवं शान्ति का प्रगाढ़ वलय होना जैसे अतिमानवीय लक्षणों को प्रकट करते थे।
उनके शिष्यों में श्री श्री परमहंस योगानन्द के गुरु स्वामी श्रीयुक्तेश्वर के साथ-साथ अनेक राजपरिवार, विद्वान और प्रतिष्ठित सन्त सम्मिलित थे। जैसी स्वयं योगावतार ने भविष्यवाणी की थी, सन् 1946 में योगानन्दजी की पुस्तक “योगी कथामृत” में लाहिड़ी महाशय का जीवन चरित्र प्रकाशित किया गया था। सन् 1917 में, योगानन्दजी ने क्रियायोग शिक्षाओं का प्रसार करने के उद्देश्य से रांची में योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया की स्थापना की। वर्तमान में, पूरे भारत में इसके 200 से अधिक ध्यान केन्द्र और मण्डलियाँ, चार आश्रम और अनेक रिट्रीट केन्द्र हैं।
लाहिड़ी महाशय ने 26 सितंबर, 1895 को वाराणसी में महासमाधि में प्रवेश किया; ईश्वर-साक्षात्कार प्राप्त महात्मा अपनी इच्छानुसार शरीर को त्याग सकते हैं और चेतना के उच्चतर स्तर पर जा सकते हैं। उनके शब्दों में, “क्रियायोग की गुप्त कुंजी के उपयोग के द्वारा देह-कारागार से मुक्त होकर परमतत्व में भाग निकलना सीखो।” लाहिड़ी महाशय के द्वारा क्रियायोग के पुनरुद्धार ने पूरे संसार में क्रियायोग के प्रसार का मार्ग प्रशस्त किया और साधकों को स्वयं अपने भीतर देवत्व की खोज करने और आत्मा की चेतना के खोए हुए स्वर्ग को पुनः प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया। अधिक जानकारी : yssofindia.org
लेखिका: रेणुका राणे
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