योग के सर्वोच्च विज्ञान की प्रशंसा में कुछ शब्द….अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस पर विशेष

तपस्विभ्योऽधिको योगी, ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः । कर्मिभ्यश्चाधिको योगी, तस्माद्योगी भवार्जुन ।।
(योगी को शरीर पर नियन्त्रण करने वाले तपस्वियों, ज्ञान के पथ पर चलने वालों से भी अथवा कर्म के पथ पर चलने वालों से भी श्रेष्ठ माना गया है; हे अर्जुन, तुम योगी बनो!)
—श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 6, श्लोक 46.
जब श्री श्री परमहंस योगानन्दजी ने महर्षि व्यास विरचित श्रीमद्भगवद्गीता पर अपनी बृहत् व्याख्या, “ईश्वर-अर्जुन संवाद” को “प्रत्येक सच्चे जिज्ञासु में अर्जुन-भक्त” को समर्पित किया तो सम्भवतः महान् योगी दिव्य अवतार श्रीकृष्ण के वचनों की पुष्टि कर रहे थे जब उन्होंने सभी आध्यात्मिक मार्गों में सर्वोच्च योग के राजमार्ग की प्रशंसा की, तथा वैज्ञानिक योगी को किसी अन्य मार्ग का अनुसरण करने वालों की अपेक्षा श्रेष्ठ बताया।
ईश्वर को प्राप्त करने के धीमे, अनिश्चित, और “बैलगाड़ी” के आध्यात्मविद्या मार्ग की तुलना में योग अथवा प्राणशक्ति का नियन्त्रण ईश्वर-साक्षात्कार का प्रत्यक्ष, सबसे छोटा, और “वायुयान” मार्ग है। “यह एक ऐसा साधन है जिसके माध्यम से मानवीय विकास की गति को तीव्र किया जा सकता है।”
अपनी आध्यात्मिक उत्कृष्ट पुस्तक योगी कथामृत में योगानन्दजी बताते हैं कि किस प्रकार से क्रियायोग की वैज्ञानिक प्रविधि का निष्ठापूर्वक अभ्यास करने वाला योगी धीरे-धीरे कर्म अथवा “कार्य-कारण सन्तुलन की न्यायसंगत श्रृंखला” से मुक्त हो जाता है।
हिमालय के अमर योगी, महावतार बाबाजी ने भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित क्रियायोग के प्राचीन विज्ञान की पुनः खोज की और उसका स्पष्टीकरण किया।
बाबाजी ने अपने शिष्य लाहिड़ी महाशय से यह मुक्तिदायक सत्य कहा था, “इस उन्नीसवीं शताब्दी में जो क्रियायोग मैं विश्व को तुम्हारे माध्यम से दे रहा हूँ, यह उसी विज्ञान का पुनरुत्थान है जो श्रीकृष्ण ने सहस्राब्दियों पूर्व अर्जुन को दिया था; और जो बाद में पतंजलि और ईसामसीह को ज्ञात था…” लाहिड़ी महाशय ने योगानन्दजी के गुरु, स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि सहित अपने विभिन्न श्रेष्ठ शिष्यों को इस प्रविधि की शिक्षा प्रदान की।
संयोगवश सन् 1894 में कुम्भ मेले में बाबाजी स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी से मिले थे। बाबाजी ने योग विज्ञान में प्रशिक्षित करने के लिए उनके पास एक शिष्य भेजने का वचन भी दिया था, जिन्हें कालान्तर में पाश्चात्य जगत् में शिक्षाओं का प्रसार करना था। उन्होंने करुणापूर्वक यह पुष्टि की थी, “वहाँ के अनेक मुमुक्षुओं के ज्ञानपिपासु स्पन्दन बाढ़ की भाँति मेरी ओर आते रहते हैं।”
इस दिव्य वचन की पूर्ति तब हुई थी जब योगानन्दजी ने सौ से भी अधिक वर्षों पूर्व मुक्त गुरुओं की इच्छानुसार शुद्ध और मूल रूप में क्रियायोग का प्राचीन विज्ञान संसार को प्रदान करने के लिए योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया/सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप की स्थापना की थी।
क्रियायोग का निष्ठापूर्वक अभ्यास करने से अहम्, मन, और प्राणशक्ति का आरोहण उसी मेरुदण्डीय मार्ग से होता है जिससे शरीर में आत्मा का अवरोहण हुआ था। योगानन्दजी ने अत्यन्त स्पष्ट रूप से यह बताया है कि इस प्रकार से मेरुदण्डीय मार्ग “सीधा राजमार्ग है तथा पृथ्वी पर अवरोहित सभी नश्वर प्राणियों को मुक्ति प्राप्त करने के लिए इस राजमार्ग के माध्यम से ही अन्तिम आरोहण करना आवश्यक है।”
एक सच्चा योगी तब तक ध्यान करता रहता है जब तक कि वह ईश्वर के साथ आन्तरिक सामंजस्य को प्राप्त नहीं कर लेता। इस प्रकार उसकी सभी बाह्य गतिविधियाँ अथवा सेवाएँ अहम् के द्वारा प्रेरित नहीं होती हैं अपितु वह आन्तरिक और बाह्य दोनों प्रकार के जीवन के सूक्ष्मतम विवरण में भी स्वेच्छा से ईश्वरीय इच्छा का पालन करता है।
एक सच्चा योगी ईश्वर को “नित्य-वर्तमान, नित्य-चैतन्य, नित्य-नवीन-आनन्द” के रूप में जानता है। स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी ने स्पष्ट रूप से यह कहा है कि, “प्राचीन योगियों ने यह पता लगा लिया था कि ब्रह्मचैतन्य का रहस्य श्वास-नियंत्रण के साथ घनिष्ठता से जुड़ा हुआ है। उच्चतर कार्यों के लिये प्राणशक्ति को किसी ऐसी प्रविधि की सहायता से श्वास की अनवरत आवश्यकता से मुक्त करना आवश्यक है जो श्वास को शान्त और नि:स्तब्ध कर सके।” इस प्रकार योग केवल ध्यान का विज्ञान ही नहीं अपितु आत्म-रूपान्तरण—शरीर-बद्ध अहम् का शुद्ध दिव्य आत्मा में रूपान्तरण—का विज्ञान भी है। इस अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस पर आइए हम मानव विकास के इस प्राचीन ज्ञान को विश्व के समक्ष प्रस्तुत करने में प्राचीन भारत की भूमिका को पुनः दृढ़ता प्रदान करें। अधिक जानकारी : yssofindia.org

लेखिका : सन्ध्या एस. नायर
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